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मनुष्य जन्म रहस्य

शास्त्रों और संतों का कहना है कि - मृत्यु के बाद यमदूत जीव को उसके गुरु के पास ले जाते हैं और गुरुदेव के संकेत अनुसार जीव की गति होती है, इसीलिए मनुष्य अवतार में सद्गुरु को प्रसन्न कीजिए । वास्तव में मृत्यु तो सिद्ध संत की ही होती है । सामान्यतः अन्य सभी का ट्रांसफर ही होता है । जीव एक योनि में से दूसरी योनि में घूमता रहता है । सिद्ध-संत जीवन मुक्त होते हैं । उनकी एक-एक क्षण और एक-एक कण जगत के कल्याण के लिए होता है इसीलिए ऐसे महापुरुष की "जन्म जयंती" को लोग मनाते हैं ।

सामान्य इंसान का जन्मदिन मतलब व्यक्ति उम्र में बड़ी होती जाती है अर्थात् जीवन के दिन कम होते जाते है, बाकी के दिन और वर्षों में सदगुरु चरण में प्रीति रहे, परहित की भावना का विकास हो, विविध प्रकार की रचनात्मक प्रवृत्तियां बढे । यथासंभव धर्म स्थान, तप स्थान की तन-मन-धन से सेवा में मन लगा रहे और आसक्ति रहित, ज्ञान सभर अवस्थामें, अहं रहित, निमित्त मात्र बनके विनम्र भाव से, दृढ़ शरणागति से परमार्थ सिद्ध करने मे व्यतीत हो और श्री सद्गुरु की प्रसन्नता किसमें है ?? यह सोच-समझकर योग्य तरीके से जीवन को जीने की दृष्टि ज्यादा तीव्र हो यह बहुत जरूरी है ।

मनुष्य अवतार कितना दुर्लभ है उसकी एक प्रचलित कथा -

एक सूरदास बड़े से किले में घूमते रहे और "मुझे बाहर निकालो, बाहर निकालो" ऐसे चिल्लाते रहे । संत करुणा के सागर नहीं लेकिन महासागर होते हैं । उसकी वेदना सुनके निकट आए और कहा कि - "इस विशाल किल्ले में एक भव्य दरवाजा है, मैंने वह दरवाजा देखा भी है और उसमें से बाहर निकल भी गया था लेकिन तेरा दुःख देखकर थोड़ा और समय यहाँ रुका हूँ । मुझे अभी लोकहित के बहुत कार्य करने हैं । मैं तुझे रास्ता बताता हूँ । चलना तुझे पड़ेगा । रास्ता सच्चा है, इस बात का मुझ पर विश्वास करना । तु सूरदास है इसलिए बाहर की दृष्टि नहीं है लेकिन दरवाजे में से बाहर निकल जाएगा तो अवश्य ही तेरी अंतर्दृष्टि खुल जाएगी । मैं अंतर्चक्षु से सदा दिव्य दर्शन करता हूँ । सुन ! मैंने किले की दीवार पर तेरा हाथ रख दिया है, वह मेरा फर्ज है । अब दीवार को स्पर्श करते-करते आगे बढ़ । थोड़े ही समय में दरवाजा आ जाएगा उसमें से तु बाहर निकल जाना ।

गुरुदेव की आज्ञा अनुसार वह सूरदास मन ही मन आनंदित होकर आगे बढ़ने लगा और गुरुदेव के प्रति अहोभाव व्यक्त करने लगा । दरवाजा आ गया तभी उसे पीठ में बहुत जोरसे खुजली होने लगी और जो हाथ किले की दीवार से लगा हुआ था उससे खुजाने लगा... अफसोस ! दरवाजा चला गया । सूरदास को तो पता ही नहीं चला की अभी तक दरवाजा क्यों नहीं आया ? वह विचारोंके भवरमें डूबा हुआ दीवाल को स्पर्श करते हुए आगे बढ़ने लगा, साथ ही साथ गुरुदेव के प्रति शंका-कुशंका भी बढ़ने लगी । पग की गति मंद होती जा रही है फिर भी आगे बढ़ रहा है । फिर से वापस दरवाजा आया तब फिरसे बगल में खुजली होने लगी। दरवाजा गुज़र गया । बार-बार लंबी कठिनाई भरी यात्रा के अंत में दरवाजा आए और साथ-साथ शरीर के विभिन्न अंगों में खुजली भी आए, सूरदास थक गया । दरवाजा भी राह देखकर सूरदास से ज्यादा थक गया !!! बहुत समय के बाद कोई-कोई महापुरुष ही इस दरवाजे में से निकलते है ।

यहां पर सूरदास इस संसार चक्र में अटका हुआ जीव है । मनुष्य अवतार रूपी अमूल्य तक मिले तब उस मायावी जीव को, पैसा-परिवार-पुत्र-प्रतिष्ठा की खुजली आती है और मुक्ति रूपी दरवाजा चला जाता है । जो जागृत नहीं हुए उनके लिए फिर से अवश्य यही घटनाक्रम ...

जीव परमात्मा की उपासना करें तब से ही उसका जन्म हुआ । समर्थ गुरु मिले वह भी जन्मदिवस क्योंकि उसके जन्म के ग्रह तब से बदल जाते है । गुरुकृपा मिले तब तो सोने में सुगंध और गुरुकृपा के फलस्वरूप आत्म साक्षात्कार होता है उसका जन्म सार्थक कहा जाता है ।

~प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज,
गिरनार साधना आश्रम, जूनागढ़

॥ हरि ॐ तत्सत् जय गुरुदत्त ॥
(प.पू. पुनिताचारीजी महाराज की ४५ साल की कठोर तपस्या के फल स्वरुप उन्हें भगवान दत्तात्रेय से साधको के आध्यात्मिक उथ्थान और मानसिक शांति के लिए प्राप्त महामंत्र )

"आम या बरगद का पेड़ खुद तो तृप्त होता ही है साथ साथ उसकी छाया के नीचे रहने वाले भी तृप्ति का अनुभव करते है।"
"आज मुझे (फूलों का) हार क्यों पहना रहे हो, जीत(विजय) पहनाओंना ???"

(परम पूज्य महर्षि पुनिताचारीजी महाराज, पापमोचनी एकादशी प्रसंग पे)

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